लोक कलाएं
1. फड़ चित्रांकन
रेजी अथवा खादी के कपडे़ पर लोक देवता के जीवन को चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करना फड़ चित्रांकन कहलाता है।
फड़ चित्रांकन में मुख्य पात्र को लाल रंग में तथा खलनायक को हरे रंग में दर्शाया जाता है।
फड का वाचन करने वाले भोपा तथा भोपी कहलाते है।
राज्य में निम्न प्रकार की फड प्रचलित है।
- पाबु जी की फड़
- देवनारायण जी की फड़
- रामदेव जी की फड़
- रामदला व कृष्णदला की फड़
- भौंसासुर की फड़
- अमिताभ की फड़
2. काष्ठ कला
(ए) कठपुतली
किसी व्यक्ति विशेष के पात्र को लकड़ी के ढांचे के रूप में प्रस्तुत करना ।
कठपुतली का निर्माण उदयपुर चित्तौडगढ़, कठपुतली नगर (जयपुर) में किया जाता है।
कठपुतली नाटक का मंचन नट अथवा भाट जाति द्वारा किया जाता है।
कठपुतली कला के विकास के लिए कार्यरत संस्था भारतीय लोक कला मण्डल - उदयपुर है।
इस संस्था की स्थापना सन् 1952 में देवीलाल सांभर ने की।
(बी) बेवाण
लकड़ी से निर्मित सिंहासन जिस पर ठाकुर जी की मूर्ति को श्रंृगारित करके बैठाया जाता है तथा देव झुलनी एकादशी (भाद्र शुक्ल एकादशी) के दिन किसी तालाब के किनारे ले जाकर नहलाया जाता है।
बेवाण का निर्माण बस्सी (चित्तौड़गढ) में होता है।
(सी) चैपड़ा
लकड़ी से निर्मित चार अथवा छः खाने युक्त मसाले रखने का पात्र है, जिसे पश्चिमी राजस्थान में हटड़ी कहते है।
(डी) कावड़
कपाटों युक्त लकड़ी से निर्मित मंदिरनुमा आकृति जिसे चलता फिरता देवधर भी कहा जाता है।
इसके विभिन्न कपाटों पर पौराणिक कथाओं का चित्रण किया जाता है।
कावडिये भाट इन कपाटों को खोलते हुए पौराणिक कथाओं कावाचन करते है।
कावड़ का निर्माण बस्सी (चित्तौडगढ़) में होता है।
कावड़ का निर्माण खैराद जाति के लोगों द्वारा किया जाता है।
मांगीलाल मिस्श्री - प्रसिद्ध कावड़ निर्माता है।
(ई) तौरण
विवाह के अवसर पर वर द्वारा वधु के घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर जो लकड़ी की कलात्मक आकृति लटकाई जाती है, उसे तौरण कहते है।
तौरण पर सामान्यतः मयूर की आकृति अंकित होती है।
तौरण को वर द्वारा तलवार अथवा हरी टहनी से स्पर्श करवाया जाता है।
मारना शौर्य अथवा विजय का प्रतीक माना जाता है।
(एफ) बाजौट
लकड़ी की चैकी अथवा शाट जिसे भोजन के समय अथवा पूजा के समय प्रयुक्त किया जाता है।
विवाह के समय वर व वधू को बाजौट पर बैठाने की परम्परा है।
(जी) खाण्डा
लकड़ी से निर्मित तलवारनुमा आकृति जिसका उपयोग रामलीला नाटक में तलवार के स्थान पर किया जाता है।
राजस्थान में होली के अवसर पर कारीगर द्वारा गांव में खाण्डे बांटने की परम्परा है।
गुलाबी रंग से रंगा खाण्डा शौर्य का प्रतीक माना जाता है।
पूर्वी राजस्थान में दुल्हन द्वारा दुल्हे के घर खाण्डे भेजने की परम्परा है।
काष्ठ कला का प्रधान केन्द्र बस्सी (चित्तौड़गढ) है।
यहां की खैराद जाति द्वारा कला में संलग्न है।
3. माण्डणा
मांगलिक अवसरों पर विभिन्न रंगो के माध्यम से उकेरी गई कलात्मक आकृतियां माण्डणे कहलाती है।
(ए) पगल्या
दीपावली के समय लक्ष्मी पूजन से पूर्व देवी के घर में आगमन के रूप में पगल्ये बनाए जाते है।
(बी) ताम
विवाह के समय लगन मंडप में तैयार किया गया मांडणा ताम कहलाता है।
यह दाम्पत्य जीवन में खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।
(सी) चैकड़ी
होली के अवसर पर बनाए गए मांडणे जिसमे चार कोण होते है जो चारों दिशाओं में खुशहाली का प्रतीक माने जाते है।
(डी) थापा
मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर की चैखट पर कुमकुम तथा हल्दी से बनाए गये हाथों के निशान थापे कहलाते है।
(ई) मोरड़ी माण्डणा
दक्षिणी तथा पूर्वी राजस्थान में मीणा जनजाति की महिलाओं द्वारा घरों में बनाई गई मोर की आकृति मोरड़ी माण्डणा कहलाती है।
मोर को सुन्दरता, खुशहाली तथा समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
(एफ) स्वास्तिक/सातिया/सांखिया
उत्तरी व पश्चिमी राजस्थान में सांखिया, तथा पूर्वी राजस्थान में सातिया कहते है।
मांगलिक अवसरों पर ब्राहाणों के द्वारा मन्त्रोचार से पूर्व पूजा के स्थान पर स्वास्तिक का अंकन किया जाता है।
4. देवरा
ग्रामीण क्षेत्रों में लोकदेवताओं के चबुतरेनुमा थान "देवरा" कहलाते है।
5. पथवारी
ग्रामीण क्षेत्रों में गांव के बाहर रास्ते में मिट्टी से बनाया गया स्थान जिसे तीर्थ यात्रा पर जाने से पूर्व पूजा जाता है।
6. सांझी/संझया
ग्रामीण क्षेत्रों में कुवांरी कन्याओं द्वारा अच्छे वर की कामना हेतू दीवार पर उकेरे गए रंगीन भित्ति चित्र सांझी कहलाते है।
सांझाी पर्व श्राद्ध पक्ष से दशहरे तक मनाया जाता है।
केले की सांझाी के लिए श्री नाथ मंदिर (नाथ द्वारा) प्रसिद्ध है।
उदयपुर का मछन्द्र नाथ मंदिर सांझी का मंदिर कहलाता है।
7. पिछवाई
नाथद्वारा का श्रीनाथ मंदिर पिछवाई कला के लिए प्रसिद्ध है।
8. पावे
कागज पर लोक देवता अथवा देवी का चित्रण पावे कहलाते है।
9. भराड़ी
भीलों में प्रचलित वैवाहिक भित्ति चित्रण की लोक देवी है।
10. हीडू
पूर्वी क्षेत्र में दीपावली के अवसर पर बच्चे मिट्टी से निर्मित एक पात्र जिसमें बिनोले जलते रहते है, को लेकर घर-घर धुमते है। इसे खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।
11. वील
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी वस्तुओं को संग्रहित करके रखने के लिए मिट्टी की बनाई गई महलनुमा आकृति वील कहलाती है।
12. मेहन्दी महावर
मांगलिक अवसरों पर महिलाओं तथा युवतियों द्वारा हाथों तथा पैरों पर मेहन्दी लगाने की परम्परा है।
मेहन्दी को सुहाग का प्रतीक माना जाता है।
राजस्थान में सोजतनगर की मेहन्दी प्रसिद्ध है।
बूढ़ी महिलाऐं तथा बच्चियां कलात्मक मेहन्दी उकेरने की बजाय हथेली पर पंच बडे़ आकार की बिन्दियां बनाती है जिसे "पांचोटा" कहा जाता है।
13. बटेवडे़
गोबर से निर्मित सुखे उपलों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई गई आकृति बटेवडे़ कहलाती है।
14. चिकोरा/ चिकोटा
पश्चिमी राजस्थान में मिट्टी से बनाऐ गए पात्र जिसमें मांगलिक अवसरों पर बच्चों द्वारा तेल इकठा किया जाता है।
15. मोण/मुण
पश्चिमी राजस्थान में मिट्टी से निर्मित मटके जिनका मुंह छोटा/संकरा होता है, का उपयोग पानी के लिए किया जाता है मोण कहलाते है।
16. गोदना
गरासिया जनजाति की मुख्य प्रथा है जिसमें सुई अथवा बबूल के कांटे से मानव शरीर पर विभिन्न आकृत्तियां उकेरी जाती है।
इसमें घाव को कोयले के चूर्ण अथवा खेजड़ी की पतियों के पाउडर से भरा जाता है। सुखने के बाद आकृति हरे रंग में उभर जाती है।
17. घोड़ा बावी
आदिवासियों में विशेषकर भीलों तथा गरासिया जनजाति में मनौती पूर्ण होने पर मिट्टी से बनी घोडे़ की आकृति को पूजकर लोकदेवता को चढ़ाया जाता है।
18. ओका-नोका गुणा
ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर से बनाई गई कलाकृति जिसको चेचक के समय पूजा जाता है।
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